प्रकृति का प्रकोप।

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प्रकृति का प्रकोप।🔥


बन कर आज अग्नि जो दहक रही हैं ,तुम्हारे ही कर्मो का फल हैं जो प्रकृति तुमसे बदला ले रही हैं,खेलने का दुस्साहस किया हैं मनुष्यो ने प्रकृति के साथ, आज तुम्हारे ही कर्मो की सज़ा प्रकृति तुम्हे दे रही हैं।।


क्यों अग्नि सी तप रही हैं ये पृथ्वी ? क्यों आग बरसा रहा आसमान ? झाँक कर देखो अपने जहन में तभी होगा तुम्हे सत्य का अनुमान।।


बस अपना फायदा अपनी खुशी अपने स्वार्थ के लिए जिया अबतक तुमने, पेड़ो को काट कर प्रकृति का निरादर किया जो तुमने आज उसी का बदला वो तुमसे ले रही हैं,जो बन कर अंगार कुदरत तुमपर बरस रही हैं।। 


जिसके गोद में पल कर तुम बड़े हुए,आज उसी की ममता भरी आँचल को तुम भूल गए उसकी संतान हो कर भी तुम अपने-पराए के मतभेद में कैसे उलझ गए।। 


इस प्रकृति के ही संतान हो तुम सब इसलिए प्रकृति ने तुम सबको संभलने का एक मौका दिया मगर अपने स्वार्थ और अभिमान में तुमने उस मौके को गवा दिया आज उसी का परिणाम हैं जो प्रकृति ने तुम्हे ये दंड दिया।।


आकाश की ऊंचाई और आकाश की लम्बाई का ज्ञात लगा पाना किसी के बस की बात नहीं ये हैं ईश्वर का करिश्मा जिसकी गहराई तक पहुँच पाना किसी के लिए आसान नहीं, फिर कैसे ये दीवार लगा दी तुमने जाति और धर्म की, तुम्हारी नफरत की आग हैं ये जो तुम्हे ही जला रही हैं।।   


हर कन्याओ में अंश हैं जिस शक्ति का किया हैं तुमने उनका अपमान प्रकृति अपना कहर दिखाएगी ही अब क्यों बन रहे तुम नादान।। 


कबसे ये पृथ्वी पाप का बोझ उठा रही? कबसे ये संसार अधर्म के जुल्म को सह रहा ? अब बहुत हुआ सितम तुम्हारा क्योकि यही वो समय हैं की धर्म और न्याय का विस्तार करू मैं दोबारा।। 


पूत कपूत हो सकते हैं मगर माता नहीं होती कुमाता, यदि पुत्र अधर्म का चुनाव करे तो कैसे शांति धारण कर सकती हैं माता ? तुम्हारे ही कर्मो का फल हैं ये जिसका बदला तुमसे ले रही ये प्रकृति माता।।


निभाओगे तुम अपने फर्ज को करोगे विश्व का विकास, इस धरा पर भेजा तुम्हे जिस प्रयोजन से मैंने तुमपे कर विश्वास, मगर नफरत और स्वार्थ में उलझ गया ये संसार, यूही नहीं  भड़क रही आज सबपर क्रोधाग्नि, क्योकि हैं सब प्रकृति के गुनहगार।।




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